भगवद्गीता, जो भारतीय दर्शन के आधारभूत ग्रन्थों में से एक है, ने अपने दार्शनिक मर्म एवं नैतिक शिक्षाओं के माध्यम से काल एवं देश की सीमाओं को अतिक्रमित कर सम्पूर्ण मानवता को धर्म, कर्तव्य तथा जीवन-सामंजस्य का अमर मार्ग प्रदान किया है। इसके प्रमुख सिद्धान्तों में ‘स्वधर्म’ की अवधारणा विशेष रूप से उल्लेखनीय है जो यह प्रतिपादित करती है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन निष्ठा, समता और निष्काम भाव से करे। तीव्र वैश्वीकरण, नैतिक द्वन्द्वों और सामाजिक-राजनीतिक तनावों से युक्त इस युग में गीता का यह सन्देश कर्त्तव्यबोध, आन्तरिक शान्ति एवं सामूहिक सद्भावना के संवर्धन हेतु एक शाश्वत मार्गदर्शक के रूप में प्रतिष्ठित है।
विषय की प्रासंगिकता (Thematic Relevance)
कर्तव्यनिष्ठा (Commitment to Responsibility)
भगवद्गीता में स्वधर्म का गूढ़ तत्त्व यह सिखाता है कि मनुष्य को अपने कर्त्तव्य का पालन निष्कपट निष्ठा के साथ करना चाहिए। स्वधर्म के पालन में निधन भी श्रेय है व परधर्म भयावह है।
“श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥”
(भगवद्गीता ३.३५)
यह सिद्धान्त आधुनिक युग की व्यावसायिक नैतिकता, नागरिक दायित्वबोध और नेतृत्व की सत्यनिष्ठा से प्रतिध्वनित होता है। वैश्वीकरण के इस युग में जहाँ अनुकरण, प्रतिस्पर्धा का दबाव सर्वत्र व्याप्त है, ‘स्वधर्म’ हमें यह स्मरण कराता है कि व्यक्ति के स्वभाव, गुण और परिस्थिति पर आधारित प्रामाणिक कर्त्तव्यपालन ही सर्वोत्तम है — न कि दूसरों के दायित्वों का अनुकरण। यह संदेश सतत नेतृत्व (sustainable leadership), शैक्षणिक उत्तरदायित्व तथा बहुसांस्कृतिक कार्यपरिवेश में भूमिका-सत्यनिष्ठा पर हो रही समकालीन चर्चाओं के लिए अत्यन्त प्रासंगिक है।
शान्ति (Inner Calm through Detachment)
जब मनुष्य अपने कर्मों को फल की आसक्ति से रहित होकर निष्पादित करता है तभी उसे वास्तविक आन्तरिक शान्ति की अनुभूति होती है।
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥”
(भगवद्गीता २.४७)
आत्मसंयम (Self-Mastery – मानसिक स्थिरता का मार्ग)
भगवद्गीता में आत्मसंयम को मानसिक शान्ति एवं स्थैर्य की प्राप्ति का प्रमुख साधन माना गया है। यह मनुष्य को अपने इन्द्रियों और इच्छाओं पर नियंत्रण रखने का उपदेश देती है, जिससे अंतःकरण में शान्ति एवं समत्व की भावना विकसित होती है।
“यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यः तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥”
(भगवद्गीता २.५८)
यह सिद्धान्त आधुनिक तंत्रिका-विज्ञान (Neuroscience), व्यवहार-अध्ययन (Behavioral Studies), तथा भावनात्मक बुद्धिमत्ता (Emotional Intelligence) से सम्बद्ध समकालीन विमर्शों के साथ पूर्ण सामंजस्य रखता है। उपभोक्तावाद, विचलनों तथा प्रौद्योगिकीय अतिरेक से संचालित आधुनिक युग में आत्मसंयम का अभ्यास एक अनिवार्य आवश्यकता बन गया है, जो दीर्घकालिक एकाग्रता, मानसिक स्पष्टता, और नैतिक निर्णय-क्षमता को सुनिश्चित करता है।
यह तथ्य दर्शाता है कि गीता का सन्देश केवल दार्शनिक विमर्श तक सीमित नहीं है, बल्कि वह मनोविज्ञान, संज्ञान-विज्ञान (Cognitive Sciences), तथा मानसिक स्वास्थ्य एवं कल्याण-प्रथाओं (Wellness Practices) के क्षेत्र में भी समान रूप से प्रासंगिक है।
सद्भावना (Harmony – सार्वभौमिक शुभेच्छा एवं सामाजिक एकता)
सद्भावना का उद्भव तब होता है जब मनुष्य समस्त प्राणियों में विद्यमान एक ही परमात्मतत्त्व का दर्शन करता है।
“समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्व विनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥”
(भगवद्गीता १३.२८)
गीता का यह सार्वभौमिक दृष्टिकोण अन्त:सांस्कृतिक संवाद (Intercultural Dialogue), मानवाधिकार (Human Rights), तथा शान्ति-अध्ययन (Peace Studies) के वैश्विक विमर्शों से गहराई से सम्बद्ध है। समस्त जीवों में समानता का बोध ही स्थायी शान्ति, वैश्विक नागरिकता, और करुणामय नेतृत्व (Compassionate Leadership) का मूलाधार है।
आज जब मानवता जाति, वर्ग, धर्म और विचारधारा के विभाजनों से विखण्डित होती जा रही है, तब गीता का यह सन्देश समावेशी सह-अस्तित्व (Inclusive Coexistence) एवं विश्व-नैतिकता (Cosmopolitan Ethics) का आदर्श प्रस्तुत करता है जो नीति-निर्माताओं, शिक्षकों, और शान्ति-संवर्धकों, सभी के लिए प्रेरणास्रोत है।
गीता के सन्दर्भ में वैश्विक विमर्श : कर्तव्य, आत्मसंयम और विश्व–सद्भाव की पुनर्परिभाषा
यह सम्मेलन भारतीय अध्यात्म एवं गीता के शिक्षाओं को वैश्विक शैक्षिक विमर्शों के परिप्रेक्ष्य में प्रतिष्ठित करते हुए, अंतरसंस्कृतिक नैतिकता, अध्यात्म, तथा तुलनात्मक दर्शन के क्षेत्र में सार्थक योगदान देकर अकादमिक संवाद को समृद्ध करने की अपेक्षा रखता है। इसका उद्देश्य पूर्वी और पाश्चात्य चिंतन–परम्पराओं के मध्य सृजनात्मक संवाद को प्रोत्साहित करना तथा गीता के सिद्धान्तों को वैश्विक बौद्धिक विमर्शों के केन्द्र में स्थापित करना है।
यह सम्मेलन नेतृत्व एवं शिक्षा के व्यावहारिक पक्षों के लिए भी प्रेरणादायक दृष्टिकोण प्रस्तुत करेगा। गीता द्वारा प्रतिपादित कर्तव्यनिष्ठा, निष्कामता, और आत्मसंयम पर बल देते हुए यह नेतृत्व–विकास, नैतिक शासन (Ethical Governance), एवं मूल्य–आधारित शिक्षा के लिए कार्यान्वयन योग्य मार्गदर्शन प्रदान करेगा, जिससे संस्थान एवं संगठन सत्यनिष्ठा, धैर्य, तथा उत्तरदायित्व की दिशा में अग्रसर हो सकें।
इसके अतिरिक्त, गीता के दार्शनिक प्रज्ञान का प्रयोग शान्ति एवं कल्याण के सुदृढ़ प्रतिमान प्रस्तुत करता है, जहाँ निष्काम भाव और आत्म–संयम की शिक्षाओं को तनाव–प्रबन्धन, सजगता (Mindfulness), तथा भावनात्मक बुद्धिमत्ता (Emotional Intelligence) जैसे आधुनिक प्रतिरूपों में रूपान्तरित किया जा सकता है। इस प्रकार गीता की शिक्षाएँ आधुनिक युग की जटिल समस्याओं—जैसे चिंता, मानसिक थकान (Burnout), एवं जीवन–असंतुलन—के समाधान हेतु व्यावहारिक एवं मानवीय दृष्टि प्रदान करती हैं।
गीता का सार्वभौमिक दृष्टिकोण — गीता का सार्वभौमिक दृष्टिकोण में समस्त प्राणियों में एक ही दिव्यता का दर्शन किया जाता है। यह दृष्टिकोण सहानुभूति, सहिष्णुता, तथा शांतिपूर्ण सह–अस्तित्व को प्रोत्साहित करता है। यह दृष्टि अन्त:सांस्कृतिक समझ को सुदृढ़ करती है, शान्ति–निर्माण के प्रयासों को दिशा प्रदान करती है, और करुणा एवं सम्मान पर आधारित वैश्विक नागरिकता (Global Citizenship) की प्रेरणा देती है।
स्वधर्म का समकालीन प्रासंगिकता से संवाद
स्वधर्म की अवधारणा को जब आधुनिक नैतिकता, मानसिक स्वास्थ्य, व्यवहार–विज्ञान, नेतृत्व–अध्ययन, तथा अंत:सांस्कृतिक सद्भाव जैसे विमर्शों से जोड़ा जाता है, तब भगवद्गीता स्वयं को मात्र एक आध्यात्मिक ग्रन्थ नहीं बल्कि एक परिवर्तनकारी ग्रन्थ सिद्ध करती है।
यह प्राचीन ज्ञान और आधुनिक चुनौतियों के समागम का सेतु बनकर कर्तव्य, शान्ति और सद्भाव की नई परिभाषा प्रस्तुत करता है।
स्वधर्म का यह सिद्धान्त इक्कीसवीं शताब्दी के परिप्रेक्ष्य में जीवन के उद्देश्य, नैतिक उत्तरदायित्व, तथा सामाजिक सामंजस्य को पुनर्विचारित करने का अवसर प्रदान करता है। इसका शाश्वत संदेश व्यक्तिगत आत्म–सन्तोष एवं सामूहिक कल्याण, दोनों के लिए मार्ग प्रशस्त करता है जिससे गीता आज भी वैश्विक शैक्षणिक, व्यावसायिक और सामाजिक संदर्भों में अत्यन्त प्रासंगिक एवं प्रेरणादायी सिद्ध होती है।
उद्देश्य (Objectives)
1. स्वधर्म की अवधारणा को एक सार्वभौमिक नैतिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त के रूप में विशद् रूप से अन्वेषित करना।
2. निष्कामता एवं आसक्ति–त्याग संबंधी गीता–उपदेशों के माध्यम से यह परीक्षण करना कि आधुनिक समाजों में मानसिक स्वास्थ्य एवं आन्तरिक शान्ति की स्थापना में उनका क्या योगदान हो सकता है।
3. आध्यात्मिक–दार्शनिक प्रज्ञा की भूमिका को रेखांकित करना, जो अन्त:सांस्कृतिक सद्भावना और वैश्विक शान्ति के संवर्धन में सहायक हो सकती है।
4. प्राचीन भारतीय ज्ञान–परम्परा को समकालीन शासन, शिक्षा तथा सामाजिक सह–अस्तित्व की चुनौतियों से सम्बद्ध कर उसके प्रासंगिक एवं व्यावहारिक पक्षों को उद्घाटित करना।
5. भगवद्गीता के शिक्षण–तत्त्वों के व्यावहारिक अनुप्रयोगों का प्रतिपादन करना — विशेषतः नेतृत्व–विकास, सुशासन, मूल्य–आधारित शिक्षा, तथा समुदाय–कल्याण के क्षेत्र में।
6. प्रारम्भिक शोधकर्ताओं एवं शोधार्थियों (Early-career researchers and doctoral students) के लिए ऐसा मंच प्रदान करना, जहाँ वे अपने मौलिक शोध–प्रस्तावों का प्रस्तुतीकरण कर सकें तथा समीक्षात्मक प्रतिपुष्टि (feedback) प्राप्त कर सकें।
सम्मेलन के प्रमुख विषय
(प्रतिभागी अपने सारांश इन विषयों में से किसी एक अथवा एकाधिक विषयों के अनुरूप प्रस्तुत कर सकते हैं।)
1. स्वधर्म का बोध : धर्ममय कर्म का आंतरिक मार्गदर्शक
2. स्वधर्म और नेतृत्वनैतिकता : व्यक्तिगत सत्यनिष्ठा से वैश्विक उत्तरदायित्व तक
3. गीता और सतत मानव विकास : पृथ्वी एवं मानवता के प्रति कर्तव्य
4. विविध संस्कृतियों एवं धर्मों के संदर्भ में स्वधर्म की व्याख्या
5. स्वधर्म, निष्काम कर्म एवं मानव कल्याण
6. शासन एवं सार्वजनिक नीति में निर्णय-निर्माण हेतु स्वधर्म का मार्गदर्शन
7. चरित्र, समरसता एवं नागरिकता हेतु शिक्षा में स्वधर्म की भूमिका
8. भगवद्गीता के स्वधर्म-सिद्धांत से प्रबंधन की नई परिकल्पना
9. गीता की संतुलन-दृष्टि में लिंग, परिवार एवं धर्म की भूमिका
10. विभाजित विश्व में शांति की स्थापना हेतु स्वधर्म का योगदान
11. पर्यावरण-धर्म : पारिस्थितिक उत्तरदायित्व के लिए गीता का संदेश
12. स्वधर्म और योग-विज्ञान : आंतरिक समरसता का मार्ग
13. नैतिकता, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, प्रौद्योगिकी एवं मानव संकल्पशीलता — गीता के आलोक में
14. गीता, वैश्वीकरण एवं सार्वभौमिक मूल्यों की खोज
15. भावी सभ्यताओं के लिए स्वधर्म की प्रासंगिकता : संघर्ष से चेतना की ओर